दफ्तरनामा। डॉ. नीरज गजेंद्र, वरिष्ठ पत्रकार
छत्तीसगढ़ के दफ्तरों में इन दिनों चुनावी माहौल बना हुआ है। गांव-शहर में सरकारों के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई है। प्रक्रिया शुरू होने से उम्मीद थी कि चुनाव से पहले दफ्तर में फाइलों से धूल हट जाएगी। अधूरे काम पूरे हो जाएंगे। नगर और ग्राम की सरकारें बदलेंगी। दफ्तरों को चुनाव के लिहाज से साफ सुथरा कर दिया जाएगा। काम और तेजी से होंगे। लेकिन, हुआ इसके उलट। छत्तीसगढ़ के दफ्तरों में इन दिनों चुनावी व्यस्तता का ऐसा माहौल है, मानो हर कर्मचारी लोकतंत्र की धुरी हो। जनता का हर बुनियादी काम चुनावी प्रक्रिया के नाम पर ठप पड़ा है।
पालिका दफ्तर के बाहर खड़े एक मित्र ने बताया कि वह राशन कार्ड में अपने बच्चे का नाम जुड़वाने गया। बाबू ने बड़ी गंभीरता से कहा अभी चुनाव प्राथम्य है। अब चुनाव के बाद आना। मित्र ने पूछा भला चुनाव का राशन कार्ड से क्या लेना-देना। बाबू ने कहा आप समझोगे। सरकारी दफ्तरों में फाइलें जमा हो रही हैं। पेंडिंग फाइलों का ढेर ऐसा लगता है, मानो कबाड़ बाजार लगने वाला हो। हर डेस्क पर चुनावी व्यस्तता है। हालांकि, जब कोई पूछता है कि क्या काम हो रहा है। तो जवाब होता है अभी आदेश का इंतजार है। नगर और ग्राम सरकारों के आरक्षण की प्रक्रिया ने लोगों को और उलझा दिया। पंचायत दफ्तरों में जिज्ञासुओं की भीड़ लग रही है, लेकिन कर्मचारी कहते हैं, साहब फाइल लेकर मीटिंग में गए हैं।
शहरों में जहां वार्ड आरक्षण तय हो गया। वहां भी चुनावी अफसरों की व्यस्तता ने आम जनता को थका दिया। जनहित के कार्यों में रुकावट डालने का यह सिलसिला नया नहीं है। सरकारी दफ्तरों में चुनाव का काम ऑल टाइम फेवरेट बहाना बन चुका है। चाहे मतदाता सूची का काम हो या ईवीएम की चर्चा। हर बहाने के पीछे एक ही तर्क है चुनाव महत्वपूर्ण है। पिछले दिनों एक अखबार में छपी खबर ने इस समस्या को उजागर किया। एक महिला, जो विधवा पेंशन के लिए आवेदन करने आई थी। उसे पंचायत दफ्तर के चक्कर काटने पड़े। पंचायत सचिव ने चुनावी व्यस्तता का हवाला देकर उसे अगले महीने आने को कहा।
16 दिसंबर को ग्राम पंचायतों के आरक्षण का काम रोक दिया गया। इसके पीछे प्रशासनिक आदेश थे। पर जनता के लिए यह आदेश अनादेश बन गया। लोग, जो आरक्षण की प्रक्रिया के बाद अपने काम करवाने आए थे, उन्हें अगले आदेश का इंतजार करने को कह दिया गया। सरकार ने केंद्र का अनुसरण करते हुए ग्राम और नगर सरकारों के चुनाव एक साथ कराने का ऐलान किया था। लेकिन यह ऐलान भी चुनावी घोषणाओं जैसा अधूरा निकला। अब चुनाव में गैप होने की संभावना है, और यह गैप जनता के कामों में और बाधा डाल रहा है।
यह बात अब आम हो चुकी है कि सरकारी दफ्तरों में जनता की समस्याओं का हल ढूंढने के बजाय उन्हें टालने के तरीके ढूंढे जाते हैं। चुनावी व्यस्तता इस टालमटोल का सुनहरा मौका है। एक आम धारणा बन चुकी है कि लोकतंत्र जनता के लिए है, लेकिन जनता से दूर है। जनता का कहना है कि चुनाव के नाम पर उनके बुनियादी काम रोके जा रहे हैं। राशन कार्ड, पेंशन, बिजली कनेक्शन, जन्म प्रमाण पत्र हर काम चुनाव के नाम पर अटका है। लोगों को बार-बार दफ्तर के चक्कर काटने पड़ते हैं, और हर बार एक नया बहाना मिलता है।
समस्या का समाधान आसान नहीं है। जब तक सरकारी तंत्र में जिम्मेदारी और जवाबदेही तय नहीं होगी, तब तक चुनावी व्यस्तता जैसे बहाने चलते रहेंगे। लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि जनता के काम को प्राथमिकता दी जाए। जनता उम्मीद करती है कि दफ्तरों में चुनावी व्यस्तता का बहाना खत्म होगा। चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है, लेकिन यह जनता की समस्याओं का बहाना नहीं बन सकता। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जहां विकास की संभावनाएं हैं, वहां चुनावी प्रक्रिया को व्यवस्थित करना और जनहित कार्यों को सुनिश्चित करना समय की मांग है।
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