दफ्तरनामा में वरिष्ठ पत्रकार डाॅ. नीरज गजेंद्र बता रहे हैं- रिश्वत की वेदी पर झुके आम आदमी की बेबसी और सिस्टम की कठोर हकीकत

किसी भी सरकारी दफ्तर का मंजर देखिए। वहां का वातावरण किसी धार्मिक स्थल से कम नहीं लगता। फर्क बस इतना है कि यहां भगवान के नाम पर नहीं, फाइलों के नाम पर दान चढ़ाया जाता है। दफ्तर के बाबू, अफसर और उनके चहेते ठेकेदार, सब अपनी-अपनी कुर्सियों पर विराजमान रहते हैं, जैसे धर्मगुरु। और आम आदमी, वह वहां भक्त की तरह सिर झुकाए खड़ा रहता है, हाथ में चढ़ावा लिए। यहां मैं किसी विशेष दफ्तर की बात नहीं कर रहा हूं। वे समझ गए जिन्होंने दान लिया और दिया। पूरे मामले को कुछ इस तरह से देखिए। एक दफ्तर की कहानी बता रहा हूं। सुबह-सुबह किसान अपने घर से निकला। जेब में मेहनत की कमाई रखी।

वही धन, जो उसने धान बेचकर जुटाई थी। तहसील पहुंचते ही उसे लगा कि उसने जो पैसे रखे हैं, वह उसके कभी थे ही नहीं। वह उस दफ्तर के लोगों के थे। जिसे वह धीरे-धीरे उनको लौटा रहा है। उस काम के बदले जिसे मुफ्त में हो जाना चाहिए था। दफ्तर पहुंचते ही बाबू उसे फाइल दिखाता है। जैसे कोई पुजारी भगवान की मूर्ति दिखाता हो। वह किसान हिम्मत कर कहता है काम तो बहुत छोटा है। बाबू मुस्कुराता है। जैसे कह रहा हो भगवान छोटा या बड़ा नहीं होता।

आपने तो देखा ही है, हर दफ्तर के सामने एक चाय की टपरी है। जहां चाय मिलती हैं। यह चाय आम आदमी के लिए नहीं होतीं। ये अफसरों के बीच रिश्ते निभाने का जरिया होती हैं। काम का फैसला चाय की चुस्कियों में होता है। और फाइलें बिस्कुट के साथ खाई जाती हैं। मुझे याद आ रहा है एक बुजुर्ग किसान। जिसकी झुकी कमर और कांपते हाथ। उसकी जिंदगी की जर्जर हालत बयां करते हैं। वह छत्तीसगढ़ के एक तहसील पहुंचा। उसने अपनी जमीन के कागज बाबू के सामने रखे। बाबू ने कहा बाबा मिठाई। मंदिर जैसा माहौल। काम होगा या नहीं, भोग चढ़ाते समय तो भक्त को भगवान भी नहीं बताता, यहां तो इंसान बैठा है।

सरकार ने लोकायुक्त और एंटी करप्शन विभाग बनाए हैं। ये विभाग भी तो उसी व्यवस्था का हिस्सा लगते हैं। तिल्दा के एक व्यापारी ने रिश्वत के खिलाफ शिकायत की। शिकायत की जांच करने वाले अफसर भी उसे रिश्वत यह कहकर झटक लिए कि उसकी शिकायत का कोई प्रमाण नहीं, इसलिए एक अफसर पर झूठी शिकायत के आरोप में केस चलेगा। प्रमाण दो या रिश्वत नहीं तो प्रकरण बनेगा। आम आदमी की हालत उस बैल की तरह है, जिसे न तो हल खींचने का अधिकार है और न ही आराम करने का।

हर तरफ से उसे घेरा गया है। बाबू के पास जाएगा तो पैसा देगा। अफसर के पास जाएगा तो पैसा देगा। अगर नहीं देगा, तो फाइल वहीं की वहीं अटकी रहेगी। महासमुंद के पिथौरा की एक गरीब महिला की खबर पढ़ी थी। वह अपनी विधवा पेंशन के लिए दो साल से चक्कर काट रही थी। उसने हर जगह गुहार लगाई, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। अंत में, जब उसने 500 रुपए चढ़ावे के रूप में दिए, तो अगले दिन उसकी फाइल पास हो गई।

मुझे बहुत अच्छे से याद है रायपुर के एक पटवारी दफ्तर की घटना जहां खरीदी गई जमीन का पट्‌टा बनवाने के लिए खरीददार को पांच हजार रुपए पटवारी, तहसीलदार, सरपंच और न जाने किस-किस के नाम से वसूले गए थे। यह गोपनीय हीं समाचार पत्रों में प्रकाशित प्रमाणित खबर का जिक्र कर रहा हूं, लेकिन सब जानने के बाद भी सिस्टम में बदलाव क्यों नहीं हुआ। यह चिंता का विषय है। उसी दफ्तर में चार दिन पहले वही सूचना फिर निकल आई। क्या यह सिर्फ उस किसान की कहानी है। या यह आपकी भी है। बिजली का बिल ठीक कराना हो, प्राइवेट स्कूल में बच्चे का दाखिला पक्का कराना हो। या राशन कार्ड बनवाना—हर बार आपको ऐसा लगता है कि आपकी मेहनत और आत्मसम्मान को निचोड़ लिया गया। हर बार वही धक्का, वही मजबूरी।

यह समस्या नई नहीं है, लेकिन इसे खत्म करने का उपाय क्या है। डिजिटल इंडिया भी इसका हल नहीं हो सकता, क्योंकि सिस्टम तो वही है। केवल प्लेटफॉर्म बदल गया है। अब रिश्वत ऑनलाइन ली जाती है। सरकार को सख्त कानून बनाने से ज्यादा, उसे ईमानदारी से लागू करना होगा। आम आदमी को अपनी मजबूरी से लड़ने की ताकत जुटानी होगी। जब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक यह रिश्वतखोरी दफ्तरों का धर्म बनी रहेगी। और हम सब, इस धर्म के अनचाहे भक्त। यह धर्म। जिसे रिश्वतखोरी कहते हैं। हम पर थोपा गया है। अब शायद वक्त आ गया है कि हम इस धर्म को अस्वीकार करें। उठिए, अपनी आवाज बुलंद कीजिए। शायद आप अकेले हैं, लेकिन आपकी बात शुरूआत है। बदलाव यहीं से आएगा।

फेसबुक पर जाइए

https://webmorcha.com/google-launches-genie-in-india-now-it-works/

हमसे जुडिए

ये भी पढ़ें...

Edit Template