महासमुंद में पिछले कुछ दिनों से तहसील और एसडीएम कार्यालयों के बाहर जो नाटक चल रहा है, उसने पूरे जिले की हवा को कुछ ज्यादा ही गरमा दिया है। इसमें मुख्य किरदार में सत्तासीन नेता और सरकारी कर्मचारी हैं। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर ऐसे आरोप लगा रहे हैं जैसे कोई ईमानदारी का सर्टिफिकेट पाने की होड़ में हो। नेताजी पर आरोप है कि वे सरकारी दफ्तरों में घुसकर नारेबाजी करने, वीडियो रिकॉर्डिंग करने और कर्मचारियों पर दबाव बनाने जैसे कार्य कर रहे हैं। कर्मचारी भ्रष्टाचार और अडियल रवैए के आरोपों से घिरे हैं। अब, सवाल उठता है कि आखिर सच कौन बोल रहा है। कर्मचारियों और नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप की ऐसी गूंज है कि आम आदमी बेचारा भौंचक्का सा तमाशा देख रहा है। इस प्रदर्शन ने सरकारी दफ्तर को बंद करा दिया है, लेकिन जनता के दुख-दर्द और फाइलों के ढेर को इससे कोई राहत नहीं मिली।
इसी बीच नेताओं और उनके साथ चलने वालों ने मंत्रालय पहुंचकर भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का रोना रोया। सत्तानसीन ने भी बिना देरी किए जांच होगी का रटा-रटाया आश्वासन दे दिया। हालांकि, जांच का मतलब हमारे देश-प्रदेश में क्या होता है, यह तो आप बेहतर जानते हैं एक ऐसी प्रक्रिया जो कछुए की रफ्तार से शुरू होती है और घोंघे की चाल में खत्म। यह पूरा मामला इतना नाटकीय है कि आम जनता असमंजस में है कि किस पर विश्वास करे। एक तरफ जनता की आवाज है, जो इन सरकारी दफ्तरों की दहलीज पर ठहर जाती है, और दूसरी तरफ प्रदर्शनकारी हैं, जो अपनी बात मनवाने के लिए जमीन-आसमान एक किए हुए हैं। सत्तासीन कहते हैं कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। वहीं, कर्मचारी कहते हैं कि नेता जी के दबाव और धमकियों ने उनकी मानसिक शांति छीन ली है। अब आप ही सोचिए, दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी ईमानदारी की कसम खा रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि ये ईमानदारी आखिर किसके लिए है।
सत्तासीनों का दावा है कि वे जनता की आवाज बनकर तहसील और एसडीएम दफ्तरों में फैले भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे हैं। यह सुनकर थोड़ा गर्व तो होता है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या भ्रष्टाचार से लड़ने का यह तरीका सही है। क्या वीडियो रिकॉर्डिंग और नारेबाजी से व्यवस्था में सुधार हो जाएगा। या फिर यह पूरा मामला सिर्फ सुर्खियां बटोरने का महज एक हथकंडा है। दूसरी तरफ कर्मचारी हैं, जो खुद को पीड़ित बता रहे हैं। उनका कहना है कि नेता जी के हस्तक्षेप ने उनके कामकाज को बाधित किया है। वे अपनी सुरक्षा और मानसिक शांति की गुहार लगा रहे हैं। यह बात सही है कि कोई भी दबाव में अच्छा काम नहीं कर सकता। लेकिन क्या कर्मचारी पूरी तरह निर्दोष हैं। आम जनता तो सालों से सरकारी दफ्तरों में लंबी कतारों और घूसखोरी की कहानियां सुनाती आ रही है। जनता का काम कैसे और क्यों लटकाया जाता है, यह किसी से छिपा नहीं है।
अब इस नाटक में एक नया मोड़ तब आया जब दोनों पक्ष धरने पर बैठ गए। धरने पर बैठने का अधिकार सभी को है, लेकिन जब यह अधिकार एक जिम्मेदारी के बजाय तमाशा बन जाए, तो सवाल उठना लाजमी है। एक तरफ सत्तासीन भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगा रहे थे, तो दूसरी तरफ कर्मचारी उनके खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठे थे। यह देखकर ऐसा लगा मानो दो गुट अपने-अपने स्वार्थ के लिए आम जनता को रौंदने की प्रतियोगिता कर रहे हों। धरने का असली उद्देश्य क्या है, यह किसी को समझ नहीं आ रहा।
आम जनता, जो पहले ही सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते थक चुकी है, अब इस नई समस्या से जूझ रही है। सरकारी कामकाज पूरी तरह ठप हो गया है, और जो थोड़ी-बहुत उम्मीद थी, वह भी धरने के शोर में कहीं खो गई है। इस पूरे घटनाक्रम में प्रशासन का रवैया भी सवालों के घेरे में है। आखिर, जब यह सब हो रहा था, तो प्रशासन क्या कर रहा था। कलेक्टर से लेकर तहसीलदार तक सब एक-दूसरे की तरफ देख रहे हैं, मानो जिम्मेदारी किसी और की हो। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार और लापरवाही की जड़ें गहरी हैं। पर प्रशासन ने इसे रोकने के लिए अब तक क्या कदम उठाए हैं। जवाब कुछ नहीं।
अब सवाल यह उठता है कि इस समस्या का समाधान क्या है। क्या प्रशासन और सरकार हस्तक्षेप करेंगे। क्या नेता और कर्मचारी अपनी-अपनी हठधर्मिता छोड़कर जनता के हित में काम करेंगे। हालांकि, इस पूरे प्रकरण से यह बात साफ है कि अगर जनता को राहत चाहिए, तो उसे खुद ही आगे आना होगा। यह समय है जब जनता को अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए और नेताओं और कर्मचारियों को यह याद दिलाना चाहिए कि वे जनता के सेवक हैं, स्वामी नहीं। यह घटना सिर्फ एक क्षेत्र विशेष का मामला नहीं है। यह हमारे सिस्टम की उन खामियों का आईना है, जो हर स्तर पर मौजूद हैं। नेताओं और कर्मचारियों को चाहिए कि वे अपने स्वार्थ को किनारे रखकर जनता के लिए काम करें। वरना, यह गुस्सा कभी न कभी ऐसा रूप लेगा, जो सब कुछ बदलकर रख देगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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