गढ़ के गोठ में वरिष्ठ पत्रकार डॉ. नीरज गजेंद्र बता रहे पत्रकारिता में सच्चाई की हत्या और राजनीति का चिंताजनक हस्तक्षेप

बस्तर के बीजापुर में पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या ने एक बार फिर पत्रकारिता के संघर्ष और उसके खतरों को उजागर किया है। आमतौर पर बस्तर और छत्तीसगढ़ में होने वाली हिंसा के लिए नक्सलियों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। इस बार यह धारणा टूट गई। पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या नक्सलियों से नहीं, बल्कि एक ठेकेदार द्वारा की गई या कराई गई है। यह एक ऐसी घटना है जो कई सवालों को जन्म देती है। यह बताती है कि पत्रकारिता के रास्ते में हमेशा खतरे होते हैं। चाहे वह कोई भी हो।

छत्तीसगढ़ और देशभर में पत्रकारों की हत्या का इतिहास लंबा और दुखद है। हर बार कहानी एक जैसी होती है—एक पत्रकार सच उजागर करता है, और उसकी आवाज़ को खामोश कर दिया जाता है। भ्रष्टाचार, घोटाले या अन्य अनियमितताओं को सामने लाने की कीमत अक्सर पत्रकार अपनी जान देकर चुकाते हैं। मुकेश की हत्या एक उदाहरण है, लेकिन यह अकेली घटना नहीं है। चाहे बस्तर के ही नेमीचंद जैन या बिलासपुर के सुशील पाठक जैसे पत्रकारों की हत्या हो, सभी घटनाएं यह सवाल उठाती हैं कि पत्रकारिता के लिए सुरक्षित माहौल कब बनेगा।

हर हत्या के बाद राजनीति शुरू हो जाती है। बयान दिए जाते हैं। आरोप-प्रत्यारोप होते हैं। लेकिन पत्रकारों की सुरक्षा पर ठोस कदम नहीं उठाए जाते। एक पत्रकार की मौत पर कुछ दिन शोक और चर्चा होती है। फिर मामला ठंडा पड़ जाता है। पत्रकारिता का संघर्ष। सच की खोज और खतरों का सिलसिला जारी रहता है। राजनीति के इस शोर में असल मुद्दे दब जाते हैं। क्या पत्रकारों के लिए सख्त सुरक्षा कानून की मांग जायज़ नहीं है। सरकारें क्यों इस पर चुप्पी साधे रहती हैं। आज पत्रकारिता समाज और लोकतंत्र की रीढ़ है। पत्रकार भ्रष्टाचार या अन्याय को उजागर करते हैं। तो वे केवल समाजहित में काम करते हैं। इसके बदले उन्हें धमकी, हमला या हत्या झेलनी पड़ती है। क्या यह लोकतंत्र के लिए ठीक है।

इस तरह की घटनाओं के बाद राजनीति की सियासत भी तेज हो जाती है। हर पार्टी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करती है। पत्रकार की हत्या के कारण और उसके पीछे छिपे असल मुद्दे अक्सर दबकर रह जाते हैं। राजनीतिक बयानबाजी और बयानवीरता के बीच पत्रकार की मौत की वजह नहीं सुनी जाती। ऐसा क्यों है। क्या उन मुद्दों से आंखें चुराने के बजाय केवल सियासत में उलझकर इस मुद्दे की गंभीरता को भूल रहे हैं। सियासत के इस खेल में कभी यह नहीं पूछते कि पत्रकारों के लिए सख्त कानून क्यों नहीं बनाए गए।

छत्तीसगढ़ में लंबे समय से पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग उठती रही है। यह कानून न केवल पत्रकारों को सुरक्षा देगा, बल्कि उनके खिलाफ अपराधों पर तेजी से कार्रवाई सुनिश्चित करेगा। छत्तीसगढ़ में पत्रकार लगातार हमलों और हत्याओं का सामना कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में इसकी ज़रूरत और बढ़ जाती है। पत्रकारिता का उद्देश्य सच को सामने लाना है। किसी व्यक्ति या संस्था को निशाना बनाना नहीं। इसके बावजूद पत्रकारों को नायक का दर्जा देने के बजाय, उन्हें धमकाया और निशाना बनाया जाता है। यह लोकतंत्र और समाज के लिए चेतावनी है।

अब समय है कि केवल बयानबाजी से ऊपर उठकर ठोस कदम उठाए जाएं। पत्रकारों की हत्या और उनके खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए सख्त कानून बनाए जाएं। सरकारों को समझना होगा कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र कमजोर हो जाएगा। मुकेश चंद्राकर की हत्या यह सोचने पर मजबूर करती है कि सच को उजागर करने वालों को किस तरह का माहौल मिलना चाहिए। पत्रकारिता का असल मकसद सच्चाई को सामने लाना है, न कि उस सच्चाई के कारण जान गंवाना। पत्रकारों को सुरक्षित माहौल मिलना ही चाहिए। यही लोकतंत्र का असली आधार है।

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