दधीचि का सर्वस्व न्योछावर कर देना कैसे है सबसे बड़ा धर्म बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार डॉ. नीरज गजेंद्र, दान के महत्व पर पढ़िए उनका स्तंभ- ज़िंदगीनामा

ज़िंदगीनामा

जिंदगी अनमोल है। उससे भी अनमोल है परोपकार। दूसरों के लिए कुछ करना। दूसरों को नई जिंदगी देना। यही इंसान को अमर बनाता है। जब किसी का दिल थम जाए। किसी की किडनी जवाब दे जाए। तब अंग दान एक उम्मीद जगाता है। यह बुझती जिंदगी में रोशनी ला सकता है। महर्षि दधीचि इस परोपकार के सबसे बड़े प्रतीक हैं। कहानी पुरानी है। देवताओं और असुरों के बीच युद्ध चल रहा था। असुरों के प्रहार से देवता कमजोर पड़ गए थे। उन्हें एक ऐसे अस्त्र की जरूरत थी, जो असुरों का संहार कर सके।

लेकिन सवाल था यह अस्त्र बनेगा कैसे। तब महर्षि दधीचि ने खुद को आगे किया। उन्होंने अपनी अस्थियां दान करने का संकल्प लिया। उनके इस बलिदान से वज्र बना। उसी वज्र से असुरों का अंत हुआ और देवताओं को विजय मिली। महर्षि दधीचि का यह बलिदान सिखाता है दूसरों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना ही सबसे बड़ा धर्म है। उन्होंने यह साबित कर दिया कि परोपकार से बढ़कर कुछ नहीं। समय बदला है। परिस्थितियां बदली हैं। लेकिन दूसरों की भलाई की जरूरत आज भी उतनी ही है।

आज भी ऐसे उदाहरण हमारे समाज में मौजूद हैं। आज मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी। राजस्थान के झालावाड़ के विष्णु प्रसाद की। वे परोपकार का जीता-जागता प्रमाण हैं। 33 साल के विष्णु का ब्रेन डेड होना दुखद था। लेकिन उनके अंग दान ने छह लोगों को नई जिंदगी दी। यह आसान निर्णय नहीं था। उनका यह कदम सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम भी दूसरों के लिए कुछ कर सकते हैं।

क्या हम मरने के बाद भी किसी के शरीर का का हिस्सा बन जीवित रह सकते हैं। हां, लेकिन कुछ भ्रांतियां है। अंग दान को लेकर भ्रांतियां। कुछ लोग इसे धर्म और परंपराओं के खिलाफ मानते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि हर धर्म, परोपकार और दूसरों की मदद की सीख देता है। हिंदू धर्म में कहा गया है परोपकाराय सतां विभूतयः। सज्जनों का जीवन दूसरों की भलाई के लिए होता है। महर्षि दधीचि का त्याग इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस्लाम में जीवनदान को सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। ईसाई धर्म में कहा गया है हरेक से प्रेम करो। सिखों में भी सेवा और त्याग को सर्वोच्च माना गया है।

विष्णु प्रसाद का कदम हमें झकझोरता है। यह हमें सिखाता है कि मरने के बाद भी हम दूसरों के लिए जिंदा रह सकते हैं। यह समाज में नई सोच की नींव रखता है। यह हमें बताता है कि इंसान का जीवन सिर्फ अपने लिए नहीं है। दूसरों के लिए जीना ही असली जीवन है। आइए, हम महर्षि दधीचि और विष्णु प्रसाद से प्रेरणा लें। यह संकल्प लें कि मरने के बाद भी हम दूसरों के लिए कैसे जिंदा रहेंगे।

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