नई दिल्ली। तीस दशक पहले 4 अगस्त, 1983 को एक फिल्म रिलीज हुई। नाम था- अंधा कानून। अमिताभ बच्चन, रजनीकांत और हेमा मालिनी अभिनीत इस फिल्म का टाइटल सॉन्ग काफी मशहूर हुआ- ये अंधा कानून है… मशहूर संगीतकार आनंद बख्शी ने कोर्ट-कचहरी, वकील-दलील, सुनवाई-फैसले के हालात को शब्द दिए तो किशोर कुमार ने उसे अपनी आवाज देकर कानून को लेकर जन-जन की पुकार माननीयों तक पहुंचा दी। एक जगह किशोर गाते हैं- अस्मतें लुटीं, चली गोली, इसने आंख नहीं खोली। फिर वो कहते हैं- लंबे इसके हाथ सही, ताकत इसके साथ सही। पर ये देख नहीं सकता, ये बिन देखे है लिखता।
आनंद बख्शी ने कानून के अंधे होने के ये सबूत देने के अलावा भी पूरे गीत में बहुत कुछ कहा है। बख्शी का वो कहना और किशोर का उसे गाना, उनके जीवन में कोई रंग नहीं ला सका। अब जब वो दोनों नहीं हैं तो कानून के सबसे बड़े मंच संचालक सुप्रीम कोर्ट ने प्रतीकात्मक ही सही, लेकिन कदम उठाया है। सर्वोच्च न्यायालय में अब न्याय की देवी की आंखों से काली पट्टी हट गई है। वो अब सबकुछ देख सकती हैं, अंधी नहीं रह गईं। लेकिन क्या यही संदेश देने के लिए फिल्म बनाई गई थी कि मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा दो, बस सब चंगा हो जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पहल पर न्याय की देवी की मूर्ति की आंखें खुल गईं और हाथ में तलवार की जगह संविधान ने ले ली है। यह कानून को सर्वद्रष्टा बताने की कोशिश है। सही है। लेकिन क्या मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा देने का रत्ती भर भी असर कानूनी प्रक्रिया पर पड़ने वाला है? मौजूदा परिस्थितियों में यह सवाल ही बेमानी है। जब लोगों में आम धारणा हो कि थाना-पुलिस और कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगा तो जिंदगी तबाह हो जाएगी, तब मूर्ति की आंखों से पट्टी हटाकर भला क्या सुधर जाना है? न्याय की देवी को सच में आंखें देनी हैं तो आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत होगी। यह तो चीफ जस्टिस भी जानते हैं।
आखिर किसे नहीं पता कि इस देश में सड़क से लेकर अदालत तक, हर जगह कानून की धज्जियां उड़ती हैं और न्याय की देवी यूं ही स्टैच्यू बनी रहती हैं। कोई हरकत नहीं, बिल्कुल संवेदनहीन। सड़कों पर कानून तमाशबीन बनकर खड़ा है, थाने में वह उगाही और उत्पीड़न का अस्त्र बना है तो अदालतों में दलीलों और तारीखों की बेइंतहा ऊबाऊ प्रक्रिया का ऐसा ऑक्टोपस है ये, जिसकी जकड़न में गए तो खैर नहीं।
करीब 80 हजार मुकदमों की ढेर सुप्रीम कोर्ट में ही लगी है। फिर भी अब अंधा कानून कहने की हिमाकत नहीं कीजिएगा महोदय, न्याय की देवी अब सबकुछ देख जो सकती हैं। अब तक अंधे कानून की त्रासदी न्याय की देवी देख नहीं पाती थीं, अब वो खुली आंखों से सब देखेंगी। कम-से-कम उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि देख पाने के कारण न्याय की देवी की मूर्ति में भी संवेदना जग जाए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने वाकई अच्छी पहल की है।
लेखक के बारे में
नवीन कुमार पाण्डेय