छत्तीसगढ़ के पलायन की पीड़ा: छत्तीसगढ़, जिसे कभी धान का कटोरा और अब धन का भंडार कहा जाता है। अपनी प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों और संपन्नता के लिए जाना-पहचाना जा रहा है। यहां की मिट्टी में मेहनत की खुशबू है। खेतों में हरियाली लहराती है। राज्य में रोजगार और संसाधनों की कोई कमी नहीं दिखती। फिर क्यों, हर साल हजारों मजदूर परिवार अपने गांव-घर के दरवाजों को ताले और कांटों से बंद कर पलायन कर जाते हैं। क्या इन्हें यहां पर्याप्त अवसर नहीं मिल रहे, या इसके पीछे कुछ और ही सच्चाई छुपी है। यह विडंबना है कि जिस राज्य में धान, कोयला, और लोहा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो, वहां के मजदूरों को रोटी, कपड़ा और मकान के लिए ईंट भट्ठों और निर्माण स्थलों पर जाना पड़े।
सरकार द्वारा गरीब और मजदूर तबकों के लिए कई योजनाएं लाई गई हैं। राशन कार्ड, प्रधानमंत्री आवास योजना और श्रमिक कल्याण योजनाओं से गरीबों को लाभ मिलने की खबरें तो खूब छपती हैं। फिर भी, पलायन की समस्या क्यों बढ़ रही है। कई मजदूर बताते हैं कि स्थानीय स्तर पर उन्हें न तो नियमित काम मिलता है और न ही उनकी मेहनत का पूरा मेहनताना। सरकारी योजनाएं भले ही कागजों पर शानदार लगती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और कहती है। रोजगार गारंटी योजना जैसे कार्यक्रमों में अक्सर मजदूरों की मजदूरी समय पर नहीं मिलती। छोटे किसानों के पास साधन नहीं हैं कि वे अपने खेतों में मजदूरों को काम पर रख सकें।
राज्य के कई हिस्सों, विशेषकर महासमुंद जिले के बागबाहरा और पिथौरा ब्लॉकों से मजदूरों का पलायन अब एक नियमित घटना बन गई है। सोशल मीडिया और स्थानीय अखबारों में आए दिन खबरें आती हैं कि सैकड़ों परिवार लक्जरी बसों या ट्रेनों से उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों की ओर जा रहे हैं। इन मजदूरों को काम दिलाने के नाम पर ठेकेदार और दलाल बड़ी चालाकी से उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं। इन्हें बेहतर मजदूरी और सुविधाओं का झांसा दिया जाता है, लेकिन जब ये वहां पहुंचते हैं, तो अक्सर बंधुआ मजदूर बन जाते हैं। कई बार तो इन्हें बंधक बना लिया जाता है। प्रशासन को जब खबर लगती है, तो मजदूरों को छुड़ाने के लिए टीम भेजी जाती है। यह एक ऐसा चक्र है, जो रुकने का नाम ही नहीं लेता।
सरकार और प्रशासन के पास पलायन रोकने के लिए नीतियां और कानून हैं। अंतर्राज्यीय प्रवासी कर्मकार अधिनियम 1979 जैसे कानून ठेकेदारों और दलालों पर नकेल कसने के लिए बनाए गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि इनका पालन कौन करता है। नेता और अधिकारी समस्या की जानकारी होने के बावजूद मूकदर्शक बने रहते हैं। जिले के श्रम निरीक्षकों को रेलवे स्टेशनों और बस स्टैंडों पर निगरानी रखने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन क्या यह पर्याप्त है। श्रमिकों के पलायन की खबरें आने के बावजूद कार्रवाई की गति कछुए की चाल से भी धीमी है।
ऐसा लगता है कि शासन और प्रशासन सिर्फ तभी हरकत में आते हैं, जब मीडिया में खबर बनती है या सोशल मीडिया पर आलोचना होती है। इससे पहले, वे रजाई ओढ़कर सोए रहते हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव नजदीक हैं, लेकिन गांवों के खाली होने की स्थिति पर किसी का ध्यान नहीं है। जब वोट ही डालने वाले नहीं बचेंगे, तो चुनाव का क्या होगा। यह सवाल उठना लाजिमी है। नेताओं के लिए विकास के दावे करना और भाषण देना तो आसान है, लेकिन मजदूरों की समस्याओं का समाधान करना उनकी प्राथमिकता में नहीं दिखता। यह पलायन सिर्फ मजदूरों का नहीं, बल्कि राज्य की उम्मीदों और सपनों का भी है।
अब सवाल उठता है कि इसका स्थाई समाधान क्या है, सरकारी नियमों का पालन कराना तो शायद नहीं। स्थानीय रोजगार के अवसर बढ़ाने से कुछ हद तक इस पर रोक लगाई जा सकती है। छोटे और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा दिए जाने से मजदूरों को अपने गांव में ही रोजगार मिल सकते हैं। लालच और झूठे सपनों के सहारे मजदूरों को पलायन कराने वाले ठेकेदारों और दलालों पर नकेल कसने के लिए सख्त कार्रवाई को अमल में लाना जरूरी है। इतना ही नहीं मजदूरों को योजनाओं का लाभ सही समय पर मिले, यह भी सुनिश्चित किया जाना, मजदूरों को शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाना उनको बेहतर अवसर दिलाने में मददगार हो सकता है।
पलायन की यह समस्या सिर्फ मजदूरों की नहीं, बल्कि राज्य की अस्मिता और भविष्य की है। यह वक्त नेताओं और अफसरों के लिए आत्ममंथन का है। जनता से किए गए वादों को निभाने का है। छत्तीसगढ़ के मजदूरों की मेहनत को ईंट भट्ठों तक सीमित करने के बजाय, उन्हें उनके अधिकार और सम्मान वापस देना ही असली विकास होगा। सवाल यह है, क्या सरकार और प्रशासन इस दिशा में ठोस कदम उठाएंगे या फिर एक बार फिर इन मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा।
पलायन को नहीं रोक पाने की स्थिति में छत्तीसगढ़ को कई गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। सबसे पहले, गांवों का आर्थिक और सामाजिक ढांचा कमजोर हो जाएगा। जब श्रमशक्ति अन्य राज्यों में पलायन करेगी तो गांवों में खेती, निर्माण और अन्य दैनिक कार्यों के लिए स्थानीय लोग उपलब्ध नहीं होंगे। इससे कृषि उत्पादन में गिरावट आ सकती है, जो राज्य की खाद्य सुरक्षा को भी प्रभावित करेगा। दूसरी ओर, पलायन करने वाले मजदूर अक्सर अत्यधिक शोषण और दयनीय परिस्थितियों का सामना करते हैं। अगर इस समस्या को अनदेखा किया गया, तो राज्य से बंधुआ मजदूरी और मानव तस्करी के मामले बढ़ सकते हैं।
इसके अलावा, यह समस्या राज्य की अगली पीढ़ी पर भी प्रभाव डालेगी। जब मजदूर परिवारों के बच्चे शिक्षा और पोषण से वंचित रहेंगे, तो उनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। राजनीतिक दृष्टि से भी यह समस्या गहरा संकट खड़ा कर सकती है। जब गांवों से लोग ही चले जाएंगे, तो पंचायत चुनाव और स्थानीय विकास कार्य बाधित होंगे। पलायन, राज्य के विकास और आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को कमजोर कर देगा, जिससे छत्तीसगढ़ की पहचान और स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।